घाव है ताजा तनाव
घट रही है ज़िन्दगी।
आजकल तो काँच का घर
बन गई है जिन्दगी।।
कौन अपना कौन दुश्मन
ये समझ आता नहीं।
चील के हैं पंख फैले
शुक यहाँ गाता नहीं।
पत्थरों से दिल लगाकर
पिस रही है जिन्दगी।।
आदमी निज घर सजाता,
गैर से मतलब नहीं।
प्यार में भी अर्थ खोजें,
मित्र अच्छे अब नहीं।
घर से बाहर गन्दगी की,
इक नदी है ज़िन्दग़ी।।
जो भी तूफां उठ रहे हैं,
वो कहाँ तक जायेंगे।
जब न होगा अन्न-जल तो,
हम यहाँ क्या खायेंगे?
आसमां को चूमकर,
बारूद की जिन्दगी।।
धूप के भी रंग सारे,
अब नजर आते नहीं।
अपनों के भी संग अब तो,
क्यों हमें भाते नहीं?
शहर के वीरान पथ पर,
पल रही है जिन्दगी।।
दर्द सारे बढ़ रहे हैं,
विष वमन कर जल रहे।
हिमनदों की भाँति वह भी,
नित्य प्रति ये गल रहे।
मौत के सायों में अब तो,
चल रही है जिन्दगी।।