सोने की बैसाखी देकर, पाँव हमारे छीन लिए। नवयुग ने शहरीपन देकर, गाँव हमारे छीन लिए।। होली की फागों से सारा, जीवन ही रँग जाता था, और मल्हारों से सावन भी, मन्द-मन्द मुस्काता था, आपस के नातों की ममता का सागर लहराता था, जाति-धर्म का, ऊँच-नीच का, भेद नहीं भरमाता था, कंकरीट के इस जंगल ने गाँव हमारे छीन लिए। सोने की बैसाखी देकर, पाँव हमारे छीन लिए।। पेड़ काटकर, घर बनवाकर, वैभव अपना बढ़ा लिया, और प्रदूषण की ज्वाला से, अपना जीवन जला लिया, धरती का सिंगार छीनकर, उसको विधवा बना दिया, नित परमाणु परीक्षण करके, विष साँसों में मिला दिया, और काटकर तरुवर शीतल, ठाँव हमारे छीन लिए। सोने की बैसाखी देकर, पाँव हमारे छीन लिए।। पश्चिम ने कर डाला देखो, भारत माँ का चीर हरण, और स्वयम्वर में खुद हमने, उस पापी का किया वरण, होते-होते राख हो गये, निज जीवन के स्वर्णिम क्षण, चारों ओर पराजय का डर, पायें कैसे कहीं शरण, हमको नकली पाशा देकर, दाँव हमारे छीन लिए। सोने की बैसाखी देकर, पाँव हमारे छीन लिए।। |
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रविवार, 24 जून 2012
"सोने की बैसाखी" (राकेश "चक्र")
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